देवारी तिहार के तिर मा जाड़ हा बाढ जाथे, बरसात के पानी छोड़थे अउ जाड़ हा चालू हो जाथे। फेर अंगेठा के लइक जाड़ तो अगहन-पूस मा लागथे। फेर अब न अंगेठा दिखे, न अगेठा तपइया हमर सियान मन बताथे, पहिली अब्बड़ जंगल रहय, अउ बड़े बड़े सुक्खा लकड़ी। उही लकड़ी ला लान के मनखे मन जाड़ भगाय बर अपन अंगना दुवारी मा जलाय, जेला अंगेठा काहय। कोनो कोनो डाहर अंगेठा तापे बर खदर के माचा घलो बनाथे। अउ उंहे बइठ जाड़ ला भगाय। फेर अब जमाना के संगे संग मनख घलो बदलत हे। अब तो न शहरीकरण के मारे रूख राई बाचे हे, न अब अंगेठा के तपइया दिखे। अब तो मनखे अपन आप ला डिजिटल बना डारे हे, दिन भर शोसल मीडिया, टीबी, सिनेमा बियस्त होगे हे। आजकल तो मनखे मन आठ बजे सुत के उठथे, तब ले जाड़ घलो भाग जाय रहिथे। फेर हमर राज मा जंगल इलाका हवय तिहां के सियान जवान मन अभी घलो चार बजे उठ के अंगेठा तिर बइठथे, अउ दिनभर के काम बुता कि योजना ला बनाथे। फेर जाड़ के दिन हा सियान मनखे मन बर अब्बड़ मुसकुल होथे, अउ इही जाड़ ला भगाय बर अउ सरीर ल गरमाय बर चारा आय अंगेठा। पहिली के सियान मन के एक ठन हाना घलो हे- ’’रतिहा पहाही राखे रा धिर मा खिर, जाड़ भगाही आ बइठ अंगेठा के तिर।’’ अभी घलो जब जाड़ जादा लागथे, तब मनखे ह सुते बर नि सके। एककन निंद परही ता फेर खुल जाथे, फेर परही ता फेर…। अउ अइसे लागथे कतका बेर बिहनिया होतिस अउ सुरूज नरायन के दरसन होतिस ता जाड़ ह भागतिस। ता इही ल हमर सियान मन हाना मा केहे हे- जाड़ मा रतिहा हा तो पहाबे करही, तैं थोकिन सबर कर, अउ आ अंगेठा तिर अइठ के हाथ गोड़ ला सेक ले। जाड़ घलो भाग जाही अउ मया पिरा के गोठ गोठियावत रतिहा घलो पहा जाहि। पहिली गोठ गोठियावत बेरा बुलक जाय फेर पता नइ चलय। जाड़ मा अंगेठा तापे ले जाड़ भर भागथे , अइसन नोहे, एखर ले तो परवार मा एकता घलो बाढ़थे। पहिली के सियान मन बिहनिया अंगेठा तापत पूरा दिन भर के योजना ला बनाय। इही जाड़ के मउसम मा खेती के काम हा घलो चलथे, ता खेती खार के काम काज के योजना हा घलो इही अंगेठा तिर बनय। फेर का कहिबे अब तो आधुनिकता के दउड़ मा ’’नंदावत हे अंगेठा’’।
–अमित कुमार
गाड़ाघाट पाण्डुका, गरियाबंद